विक्षुब्ध होकर .....
तोड़ दिए मैंने
आस्थाओं के सभी घरोंदे
नोच दिए वे सभी छिलके
चदाये गए थे जो मुझ पर ज़बरदस्ती
उतार दिए लेबल सभी बनावटी मुस्कुराहटों के
और
जड़ दी अश्लील स्याही समाज के उजलेपन पर,
बदले में मुझे कुचल डाला गया !!
देख ली मैंने यह मानव स्थली...
मगर अब
कंधे पर अपनी ही गुमनाम लाश लिए
भटक रहा हूँ ,
किसी दानव स्थली की तलाश में .....
आख़िर -
जीवन तो जीना ही है !!!
Sunday, November 30, 2008
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6 comments:
It was a great feeling reading the entire blog especially the poem vikshubdha hokar was very very nostalgic....GREAT
बहुत बहुत शुक्रिया रवि भाई लेकिन् मज़ा तब है जब आप यदा कदा अपने बहुमूल्य विचारों तथा सुझावों से इसे बेहतर बनने में मेरी मदद करें....( हालाँकि आपकी व्यस्त दिनचर्या से मैं खूब वाकिफ हूँ...फ़िर भी )
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