Saturday, October 31, 2009

"कोई जिए या मरे...द शो मस्ट गो ऑन "

जी हाँ ! ठीक ही कहा है किसी ने ...कुछ भी हो जाए , कोई मरे या जिए , काम नहीं रुकना चाहिए ! ...हमारे यहाँ तो वैसे भी काम को भगवान् माना गया है ! पिछले दिनों कुछ इसी बात को चरितार्थ होते हुए देखने का मौका मिला !

इधर दिल्ली में फैशन की दुनिया का हंगामे-दार इंडिया फैशन वीक चल रहा था ... जगमगाती रौशनिया, रंगीन और अजीब गरीब सी पोशाकें...कही जिस्म ढांकती - कहीं झलकाती , शोर शराबा और हिन्दोस्तान के फैशन डीजाईनरों के बीच होती प्रतिस्पर्धा ....आपाधापी !

यह सुमित टंडन है ...यह है ऋतू बेरी यह रवि बजाज और यह है दुनिया के प्रख्यात फैशन डीजाईनर रोहित बल !.......और लोगों की भरपूर तालियों के बीच , रैंप पर अपने चिर परिचित अंदाज़ में , अपने माडल्स को साथ लिए हवाई चुम्बन इधर उधर उछालते रोहित बल स्टेज पर नज़र आते हैं....! चेहरे पर वही , हर बार की तरह एक विजेता की सी भाव अभिव्यक्ति और गर्वीली मुस्कान !

दुनिया शायद इस तरह भी जीती जाती है !

लेकिन इस चमकते दमकते उल्लासित चेहरे को देख क्या कोई लेशमात्र भी अंदाजा लगा सकता है इसी रोहित बल के परिवार में एक मृत्यु का शोक मनाया जा रहा है ! मात्र एक दिन पहले यानी बुधवार के दिन , दिल्ली के न्यू फ्रैंडज़ कालोनी के एक मंदिर में रोहित बल यानी फैशन की दुनिया के चमकते सितारे गुड्डा के सगे मामा जी की रस्म उठावनी की जा रही थी ! रविवार के दिन रोहित के मामा जी का देहावसान यहीं न्यू फ्रैंडज़ कालोनी में अपने घर पर ही ह्रदय गति रुक जाने के कारण हुआ था !

मामा का रिश्ता कोई बहुत दूर का नहीं होता ! लेकिन अपनी माँ के सगे छोटे भाई की मृत्यु पर दो मिनट के लिए आकर श्रद्धा सुमन अर्पित करने की ना तो उन्हें फुर्सत थी और शायद ना ही कोई ज़रुरत ही ! शायद उनके लिए यह गीत कि " क़समें वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या ...कोई किसी का नहीं यह झूठे नाते हैं नातों का क्या " हकीकत के ज्यादा करीब है ! और होना भी चाहिए ......अरे साब ! यह सब तो मोह माया है...जो आया है उसे तो जाना ही है , फिर शोक करने की क्या ज़रुरत है ! फैशन वीक तो भैय्या अब का गया अगले साल आयेगा ...अगर उधर किसी का शोक वोक मनाने लग गए तो यह कपडों का कलेक्शन चौपट नहीं हो जाएगा ! ठीक है बचपन में मामाजी के स्कूटर पर बैठ कर हम घुम्मी घुम्मी किया करते थे जब वो हमारा बैट्री से चलने वाला हवाई जहाज़ हमें चला कर दिखाते थे तो हमारी ख़ुशी जाने कितने कितने पंख लगा कर हवा में इधर उधर उड़ती फिरती थी ....कितनी ही बार वो अपने बाक्स कैमरे से हमारी तस्वीर खींचते हुए कहते थे...हे गुड्डा स्माइल प्लीज़ ...और हम चेहरे यह गजब की मुस्कराहट लाकर तस्वीर खिचवाने लगते थे .....अरे यार बचपन था ...बचपन में तो सब ऐसे ही किया करते हैं...इसमें ऐसे सेंटी होने कि क्या बात है ? अरे अब तो हम बड़े हो गए है ना ...उनके मरने का शोक मनाएं या अपना धंदा देखें ? हमारे घर के सभी लोग तो वहां उपस्थित थे ही ....उनके पास शायद काफी खली टाइम भी है, तो इक मेरे वहां न होने क्या फरक पड़ जाता .....गया हुआ शख्स वापिस तो आने से रहा ! तो फिर ...??? अरे काम हमारी पूजा है , यही नाम है, यही दाम है और यही हमारे समूचे अस्तित्व कि पहचान है ...इसे भला कैसे छोड़ सकतें हैं हम...आप ही बताइए !

और वैसे भी " शो मस्ट गो ऑन " ! अब इसके आगे कोई सवाल बचता ही कहाँ है !!!!!!!
चिट्ठाजगत
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