Tuesday, December 2, 2008

....मगर बुरा क्या हुआ ?

हुआ...फ़िर से हुआ....पहले से कहीं ज्यादा हुआ! मगर बुरा क्या हुआ ?

सुस्ताये पड़े कुछ लोगों की दुकानदारी फ़िर चल निकली , बना बनाया तैयार मसाला मिल गया !
टी वी चैनल जो कर्मचारियों की हड़ताल की वजह से ऊंघ रहे थे ...फ़िर से अपना डोरी-डंडा लेकर मुस्तैद हो गए इस रियलिटी शो को भुनाने में। दूकानदारी खूब चल निकली ! अब कुछ दिन तो कम से कम इन्हे - यहाँ सीता नहाती थी, यहाँ हनुमान जी के पैर के निशान साफ़ दिखाई दे रहे हैं या फ़िर एक पचपन साल की बुडिया अपने जवाई के साथ भाग निकली ...जैसे ऊट -पटांग कार्यक्रमों की मोहताजी तो नही सहनी पड़ेगी ! कुछ लाइव कवरेज, कुछ खबरें और इंटरव्यू दिखाओ और बाकी एस एम् एस के ज़रिये नोट कमाओ ! और नोट भी इतने कि क्या कहें ! एक चैनल ने तो आपके शोक की अभिव्यक्ति के लिए टी वी स्क्रीन के एक कोने पर एक डिजिटल मोमबत्ती ही रौशन कर दी...कहा गया कि आप ज़्यादा से ज़्यादा एस एम् एस करके इसे जलाये रखिये....! अब हमारी भोली जनता ...वैरी सेंटीमेंटल,साहब- एक ही दिन में उन्हें एक करोड़ से भी ज़्यादा एस एम् एस पहुँच गए ! यानि सीधे सीधे छ: करोड़ से भी ज़्यादा की प्राप्ति ! हो गई न चकाचक दुकानदारी.......!

उधर कुछ राजनितिक पार्टियाँ जो अपनी चुनावी रोटियां सेंकने के लिए कुछ गरमा गर्म मुद्दों को तलाश कर रही थी , उनके लए तो मानो यह " बिल्ली के भागों छींका फूटा " सा हो गया ! ऊपर से अपने चेहरों को कुछ और भी मनहूस बना कर भले ही इधर उधर जनता के साथ शोक मानाने की नौटंकी कर रहे हों, मगर अंदर ही अंदर वे सब उन आतंकवादियों का शुक्र मनाते नहीं थक रहे होंगे -" भाई लोगो ! बड़े वक्त पर आकर आपने हमारी नैय्या को सहारा दिया...." !

दीवाली चले जाने के बाद मोमबत्ती उद्योग या तो अपनी दूकान उन गांवों कस्बों में ले जाता है - जहाँ पिछले साठ वर्षों से नेताओं के भरे पुरे आश्वासनों के बाद भी बिजली रानी के दीदार नही हो पाये ..और या फ़िर अगली दिवाली तक का इंतज़ार करता है....मगर देखो तो , कमाल की बिक्री हो गयी शहरों में ( बावजूद नकवी साहब के ब्यान के की भाई लोग यह पश्चिमी सभ्यता का तरीका कोई मायने नही रखता ...भले ही कितनी भी लिपस्टिक पाउडर लगाके आप मोमबत्ती जला लें ) ! एक मोमबत्ती तो मैंने भी जलाई थी ....!

पार्कों में बैठते पेंशन याफ्ता बुड्डों के हाथ भी एक अच्छा खासा मुद्दा लग गया ! चाहे तो वे अब सरकार को या सिस्टम को कोसें या फ़िर पाकिस्तान को - वक्त अच्छा खासा कट जाएगा ! अभी कल ही सुन रहा था ....
" ये भैनके...आई बी वाले ..ये रा वाले ..इन्हे सब पता होता है पर करते कुछ नही ! कोई डर खतरा रह ही नही गया किसी की चमड़ी में ..."
"अजी डर खतरा कैसा ? जब सारे ही कर्रप्ट हो जायेंगे तो कौन किससे डरेगा ? सारे सिस्टम की ऐसी तैसी हो रक्खी है जी..."

उधर सुना है की पब्स और night clubs वगेराह में हमारी कोर्पोरेट युवा पीडी भी इस विषय पर जम कर चर्चा कर रही है !
"आ मेंन ! व्हाट अ ट्रेजेडी ! कम आन ...इन सबको तो पकड़ के सीधे फांसी पर लटका देना चाहिए !
ओ या ! वैरी सेड !...हे वेटर ...इधर लार्ज देना एक और ! ओन द रोक्स ..."

तो जनाब ! हुआ तो बहुत बुरा ...पर फ़िर क्या बुरा हुआ ?

बाकी रही मरने वालों की बात तो - भइया ! यह तो पब्लिक है और पब्लिक का तो काम है मरना ! चाहे रोज़मर्रा की त्रासदियों के बोझ तले आकर -तिल तिल कर मरे या फ़िर किन्ही सिरफिरे आतंकवादिओं के बारूद का निशाना बन कर मरे ! यहाँ तो इसका मरना किसी गिद्धों की जमात के लिए दावत के इंतजाम के बराबर है...जो अपने लंबे लंबे पंख फैला कर, अजीब अजीब आवाजें निकलते हुए अपने मुर्दा शिकार पर टूट पड़ने को तैयार हैं...!

यहाँ वहां छितराए हुए लाशों के ढेर .... मुर्दा शिकार और मुर्दाखोर गिद्ध ...नाजाने कितने अलग अलग रूपों में आस पास ऊपर नीचे हर तरफ़ मंडराते हुए ! कुछ नही छोडेंगे ......ना एक कतरा खून न एक टुकडा गोश्त !


उफ़ ! मैं जड़वत हूँ ...इतना कुछ सोचने और कहने के बावजूद मैं अपने लफ्जों को ना तो मायने दे पा रहा हूँ और ना ही कोई आवाज़ ! यह गूंगे लफ्जों का जनाजा कब तक यूँ ही बिना कांधो के रेंगता रहेगा ????


कहीं रेडियो पर गीत चल रहा है.....
" चराग दिल का जलाओ , बहुत अँधेरा है " !!!!!!!
चिट्ठाजगत
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