Saturday, January 31, 2009

"चुप हूँ , तुमको हैरानी है ......बोलूँगा परेशानी होगी ..."

हुत अरसा हुआ .....एक कवि मित्र हुआ करते थे ! उन दिनों मोबाइल फ़ोन तो थे नही बल्कि लैंड लाइंस भी घरों में कम ही हुआ करते थे ! एक बार फ़ोन बुक कर दो और फिर बैठे रहो साल दो साल इंतज़ार में ! बस आपसी मेल मिलाप ही संपर्क का सीधा साधा सा माध्यम था ...टच में बस इसी तरह रहा जा सकता था ! कई अच्छे अच्छे सम्बन्ध इसी के चलते टूट जाया करते थे...! इसी तरह मेरा संपर्क उनसे टूट गया। खोज रहा हूँ पर कोई सूरते हाल लग नही रहा की वो कभी मिल जाए !

कभी कभी दिल चाहता है कि ....एक बार फिर वो मुझे उसी तरह मिल जाए जैसे ..इस लंबे अरसे के दौरान 'तीन बार' वो मुझे बड़े ही नाटकीय अंदाज़ में मिले ....एक बार त्रिवेणी कला संगम के केफेटारिया में मैं काफी कि चुस्कियां ले रहा था कि अचानक , पीछे से एक आवाज़ आयी 'बॉस ! माचिस होगी ? ' मैंने अपनी टेबल पर पडी माचिस उठाई और उन्हें देने के लिए पीछे की ओर मुड़ा कि क्या देखता हूँ एक क्लीन शेवन मुस्कुराता हुआ चेहरा मेरे सामने था ! ऐसे लगा कि वो मुझे पहचानता था ! लेकिन मेरी यादाश्त के दरीचों में कोई खट खट नही हुई ! मैंने हौले से माचिस उनकी तरफ बड़ा दी ..लेकिन माचिस लेने से पहले ही वो बोले " हाय ...आयम अनिल कपूर !"
अनिल कपूर ?? ओह हाँ , वही तो है ...फर्क सिर्फ़ पहनावे और दाडी का ही तो है ....! इससे पहले जब आखिरी बार मिला था तो एक सफ़ेद कुरता पजामा पहने हुए , चेहरे पर खासी घनी दाडी मूंछ रखे हुए शख्स का नाम अनिल कपूर था ....! खैर अच्छी खासी रही मुलाक़ात ....और इसके बाद फिर वो अनिल कपूर कहीं खो गया ! इसी तरह , फिर कुछ सालों बाद मैं रिकॉर्डिंग करके , कुछ चाय-वाई कि चुस्कियां लेने स्टूडियो से बाहर आया तो अचानक ही एक जींस -टी शर्ट पहने हुए लड़के नुमा शख्स ने हाथ आगे बढाया ! उन दिनों रेडियो की जयजयकार थी और हम कुछ कुछ सेलेब्रिटी से हो चुके थे सो, सोचा होगा कोई फेन वैन ....लेकिन जैसे ही शिष्टशता वश हमने हाथ आगे बढाया तो जनाब बोले "हाय ...आयम अनिल कपूर" ! माथा कुछ झन्ना सा गया और मुंह से बेसाख्ता निकला "यार कैसी कैसी जगहों पर मिल जाते हो !" और फिर हम दोनों एक दूसरे को कुछ देर तक अपनी अपनी राम कहानी सुनते सुनाते रहे .....फिर हमें जाना था ! उसे मंडी हॉउस किसी से मिलने और मुझे अपनी बाकी कि रिकॉर्डिंग पूरी करने ...! याने फिर एक बार वो कहीं खो गया ! मुझे याद है ...हम दोनों ने अपने टेलीफोन नम्बरों का आदान प्रदान भी किया था मगर मालूम कैसे वो नंबर हमेशा खो जाते रहे ....और हमारा संपर्क हमेशा की तरह टूटता रहा ! इन तीनो मुलाकातों में ( हाँ, तीसरी भी कुछ इसी तरह ही अनचक तौर की मुलाकात थी...'हाय , आई एम् अनिल कपूर' वाली ही ) इन साहब की शक्लो सूरत हर बार बदली हुई मिली ! कभी बाल माथे पर तो कभी एक दम पीछे बिना मांग के काढे हुए ...कभी पतलून और फोर्मल कमीज़ के साथ तो कभी जींस टी शर्ट में ! आज भी याद करता हूँ तो मुझे चाह कर भी इन तीनों मुलाकातों वाला एक भी चेहरा याद नहीं आता ! बस हल्का सा , धुंधला सा एक नाक नक्श बन पाता है ....लेकिन जो मेरी यादों के दरीचे से कभी जाता नहीं वो है ....एक घनी दाढ़ी मूंछ वाला पतला लंबा सा , सफ़ेद कुरता पाजामा पहने हुए ...चेहरे पर कुछ मज़बूत तेवर मगर बहुत ही सौम्यता से रखे हुए ....माथे पर गिरती एक हल्की सी बालों की लट को संभालता एक शख्स 'अनिल कपूर ...और उसकी एक कविता !

हाँ ! उसकी वो एक कविता जो दूरदर्शन के एक कार्यक्रम "आज के युवा कवि " में उसने पहली बार कही थी ! आज मुझे वो कविता बहुत बहुत याद आ रही है .......क्यों ??

क्योकि काफी दिन हुए मैं ब्लॉग पर कुछ भी पोस्ट नही कर सका ! बहुत कुछ कहना चाहता था , लिखना चाहता था लेकिन....सिर्फ़ चुप ही होकर सा रह गया ! मंगलोर में जो कुछ 'अम्निसिया बार' में हुआ , उसकी टीस , और उससे जुडा आक्रोश और विक्षुब्धता मुझे बार बार बहुत कुछ कहने को उकसाती भी रहीलेकिन मैं चुप रहा ! डरता था कि कहीं मेरे शब्द शालीनता की सीमाओं को लाँघ न जाएँ ! मैं कहीं कुछ नपुंसक गुंडों से मुखातिब होता हुआ अपने संस्कार अपनी तहजीब ना भूल जाऊं ! ...मेरे भाव , मेरी अभिव्यक्ति इस देश में रह रहे लोगों की , जो किसी एक धर्म में ...एक इष्ट में अपनी आस्था रखते हैं , सद्भावनाओं को ठेस न पंहुचा बैठे ! इसलिए मैंने कुछ नही लिखा कुछ नही कहा ! अन्दर ही अन्दर बस अपनी विक्षुब्धता को बढ़ते हुए , सर चढ़ते हुए देखता रहा ...महसूसता रहा !

...और इसी लिए यार 'अनिल कपूर' मुझे तुम्हारी बहुत याद आयी .....तुमने लिखा था ना :-
"चुप हूँ , तुमको हैरानी है
........बोलूँगा परेशानी होगी ..."



2 comments:

Udan Tashtari said...

चुप हूँ, तुमको हैरानी है..
बोलूँगा परेशानी होगी...


-वाकई!!

Alpana Verma said...

आप का संस्मरण पढ़ा .अनिल कपूर हमेशा पाना आउटलुक बदलते रहते हैं यह उन की खासीयत है..
लेकिन वह व्यक्ति सालों से एक सा लगता है..ज़मीन से जुडा हुआ ,कोई घमंड नहीं ...

दूसरी और जिस घटना का जिक्र आप विशुब्ध होते हुए भी नहीं कर पा रहे.-उस पर मैं यही कहूँगी की समाज के तथा कथित
ठेकेदारों ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है की लोक तंत्र की हमें कितनी आवश्यकता है?और राजनीती के इन विचित्र खेलों में आम जनता कब तक पिसती रहेगी??कानून व्यवस्था ??क्या है??हम जा कहाँ रहे हैं??कौन सी सदी में रह रहे हैं??सच है किसका विरोध करें किस का नहीं??
आँखें हैं - मगर दीखता नहीं है..वह हाल है....

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