ना असमर्थताओं से
ना संभावनाओं से
हम घिरे हैं
अपनी ही मान्यताओं से ...!!
ओढी है चादर ऐसी
कि छोटी हो
तो काट लें
हाथ पैर सर गला अपना
( बाहिर न निकलना चाहिए )
सिकुडन साँस लेने देगी
मगर कब तक ?
हर कण आज विस्तार चाहता है...
पनपता है हर बीज विस्तृत हो पेड़ बनता है
हम क्या उठेंगे
धूल धूसरित से
न अस्तित्व का वास्ता
ना ही विस्तार का बोध
जो कहा गया मान लो
जो सुन लिया
पत्थर पर लकीर है
फ़िर कहाँ बचती हैं कुछ कहने सुनने कि परिधियाँ
सब कुछ होता रहा है
सब कहीं
बाहिर भी और दूर कहीं अपने अन्दर भी
जीवन ना यात्रा है ना ही यातना
महज कुछ मान्यताओं कि सील बंद पिटारी है
कैसे जीत सकेंगे अब , जब ख़ुद ही बाज़ी हारी है
जागो .....
जागो मेरे मन अचेतन जागो !!
Wednesday, December 3, 2008
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6 comments:
congrats on the blog.
good start and lot material already up.
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विडंबनाओं से जूझती सुंदर कविता
आप की सोच और उसे कलम-बध करने की कला अच्छी है
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