Monday, February 8, 2010

" मुंबई का डान कौन ... भीखू म्हात्रे " ! पन बोले तो भीखू म्हात्रे कौन ??


साठ के दशक में पश्चिमी भारत में ....अरब सागर के तट पर एक आन्दोलन चला था ....जिसके मुख्य प्रणेता थे भाई अमृत डांगे , अचुतराव पटवर्धन , एस एम् जोशी तथा अन्य और इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य था बम्बई ( आज की मुंबई ) को महाराष्ट्र में शामिल करना ! खूब शोर शराबा हुआ , खूब हंगामा उठा और अंतत: मुंबई महाराष्ट्र की हो गयी !

इस सारे उपक्रम से फायदा सिर्फ महाराष्ट्र को हुआ...क्योंकि बॉम्बे तो पहले से ही खासा समृद्ध और वैभवशाली प्रदेश था ! इसके महाराष्ट्र में जाने से ज़ाहिर तौर पर महाराष्ट्र की साख और पहचान में चार चाँद लग गए ( और इसी बात की तो लड़ाई थी, यही तो आन्दोलन था )! लेकिन इस सारे घटना क्रम में ऐसा कोई मुद्दा नहीं उठाया गया था जिसमे यह जतलाया गया हो कि बॉम्बे सिर्फ मराठी माणूस की ही बपौती होगी ! यहाँ पहले से ही जो उद्योग स्थापित थे ...जो व्यवसाय अपनी जड़े जमाये हुए थे उनमे मराठियों का हस्तक्षेप बहुत अधिक नहीं था ! ज़्यादातर वे सब राजस्थानी मारवाड़ियों के , गुजरातिओं के या फिर पारसियों के स्वामित्व में थे ! इसके अलावा भारत वर्ष का तत्कालीन अति-विकास शील फिल्म उद्योग भी मराठियों के हाथों में कम और बिमल राय , हृषिकेश मुखर्जी , यश चोपड़ा , मनमोहन देसाई, बलदेव पुष्करना , प्रकाश मेहरा, और शक्ति सामंत सरीखे बंगाली, पंजाबी और गुजराती हाथों में ज्यादा था ! बॉम्बे को महाराष्ट्र में जोड़ने की मुहीम का अगर कोई मकसद था तो सिर्फ आर्थिक लाभ उठाना था ...बॉम्बे में उपज रहे माल-मत्ते पर अधिकार करना था ....पैसों की हो रही बारिश में भीगना था ! यहाँ प्रांतीयता , भाषा या फिर धर्म का कोई भी झगडा किसी भी सूरत में मौजूद था , ना ही उसकी कोई कल्पना थी और ही बर्दाश्त किये जाने लायक कोई परिस्तिथी ही थी ! लेकिन तभी बॉम्बे के परिदृश्य पर एक कार्टूनिस्ट उभरा , यह कार्टूनिस्ट अपने आप में एक अच्छा खासा बुद्धिजीवी भी था ! यह शख्स पूरी तरह से कुछ गहरी राजनैतिक आकाँक्षाओं से सराबोर था ...आदर्श इसका हिटलर था , मुख्य आड़ थी हिंदुत्व , और निजी स्वार्थ था बॉम्बे का रहनुमा बनना ... और बाकी क्या था - मराठी माणूस - जो उसके प्यादे भी थे और शिकार भी ! इसने इन सब तत्वों की अभिव्यक्ति और अपने लक्ष्य की पूर्ती के लिए एक पार्टी का निर्माण किया, जिसका नाम रखा 'शिव-सेना' ! बस उसके बाद बॉम्बे , बॉम्बे ना रहा !


आज वही बॉम्बे , मुंबई बनकर कराह रहा है ! वैसे इसकी मूलभूत स्तिथि तो आज भी वही है जो हमेशा से थी ! आज जब मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी का दर्जा हासिल कर चुका है, यहाँ आज भी पैसे कि मशीनरी गैर मराठी हाथों में ही है.....ज़्यादातर उद्योगों की बागडोर जिन हाथों मैं है वे मराठी नहीं हैं ! आज भी यहाँ विकसित हुए फिल्म उद्योग के सिरमौर कोई चोपड़ा , कोई भारद्वाज , कोई हीरानी, कोई भंसाली या शाह ही हैं , लेकिन इस सबके बावजूद शोर शराबा यही है कि मुंबई है मराठी माणूस की ....बाकी सब घुसपैठिये हैं ! जो लोग मुंबई को रोटी दे रहे हैं ....जिनकी वजह से मुंबई, मुंबई है ...भारत ही नहीं पूरे विश्व में जिनके कारनामों से इस सात टापुओं से बने भूखंड के अस्तित्व की पहचान है - वो सभी लोग घुसपैठिये हैं, क्योकि वे सब मराठी नहीं हैं ! वो लोग जिन्होंने अपना सारा जीवन मुंबई में रहकर प्रगति और विकास को नए आयाम , नए मायने दिए ....वे सभी घुसपैठिये हैं ! और वे लोग जो बैठे ठाले अपनी ज़हरीली और विघटनकारी सोचों के साथ , अपनी निजी आकाँक्षाओं की आपूर्ती के लिए मुंबई का शिकार कर रहे हैं , वे हैं मराठी माणूस के मसीहा और मुंबई के रहनुमा !

" मुंबई का डान कौन ... भीखू म्हात्रे " !!!
पन बोले तो भीखू म्हात्रे कौन ??

जनाब एक बार यदि यहाँ के सभी उद्योगों को ....बालीवुड को भी , मुंबई से स्थानांतरित कर दिया जाए तो शेष क्या बचता है ? गेट वे ऑफ़ इंडिया ? वह भी गैर मराठी ही है .... !

लेकिन क्या हकीकत में ही ऐसा है ? मुंबई क्या सिर्फ मराठी माणूस की बपौती ही है ? क्या जिन स्तंभों का सहारा लिए मुंबई खड़ी है , वे सब घुसपैठियें ही हैं ? नहीं - ऐसा हरगिज़ नहीं है ! मुंबई महाराष्ट्र में भले हो ...मुंबई पर पूरे देश का उतना ही हक है जितना किसी भी महाराष्ट्र वासी का ! जिस तरह से लखनऊ सिर्फ उत्तर प्रदेश का नहीं , श्रीनगर सिर्फ कश्मीर का नहीं और बंग्लोरू सिर्फ कर्नाटका का नहीं इसी तरह मुंबई सिर्फ महाराष्ट्र का नहीं ना है और ही हो सकता है ! भारत को टुकड़ों टुकड़ों में देखना एक ओछी मानसिकता का परिचायक है ! वस्तुत: इस तरह की सोच भर को एक राष्ट्रिय अपराध घोषित कर दिया जाना चाहिए !

लेकिन हम तो ऐसे लोगों को सर माथे पर बिठा कर उनसे हाथ जोड़ते , मन्नतें करते फिर रहे हैं .....पूरा मिडिया तंत्र अपनी सारी उर्जा इन्ही पर केन्द्रित किये दे रहा है ! तो आखिर क्यों ना ऐसे लोगों को शै मिले ....!

लेकिन फिर सवाल उठता है कि आखिर किया क्या जाए ?

शायद इसका एक जवाब है ..... अगर हम इन गंदी राजनीती करने वाले विघटनकारी तत्वों पर काबू नहीं पा सकते तो जिस तरह साठ के दशक में आन्दोलन चला था मुंबई को महाराष्ट्र से जोड़ने के लिए , आज एक आन्दोलन फिर से चलना चाहिए ...मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने के लिए ! हाँ ! लोगों को भाषा , प्रांतीयता और धर्म के नाम पर विघटित करने से कहीं बेहतर है कि मुंबई को ही महाराष्ट्र से विघटित करके पूरे देश के साथ जोड़ा जाए !
चड़ीगढ़ , दिउ और दमन की तर्ज़ पर अगर मुंबई को भी राष्ट्रपति के अधीन करके इसे केंद्र शासित प्रदेश बना दिया जाए तो शायद इस विघटनकारी ज़हर से हम अपनी आर्थिक राजधानी को बचा सकें !

आज समय और परिस्तिथियों का यही एक तकाज़ा है कि हमें जल्द से जल्द " मुंबई बचाओ आन्दोलन " छेड़ देना चाहिए और महामहिम प्रतिभा पाटिल से इसे अपने अधीन लेने की पुरजोर अपील करनी चाहिए.... ! राजनीती और राजनीती की नाजायज़ औलादों के बेहूदा , विघटनकारी और अमानवीय पंजों से ( जो इस वक़्त मुंबई की गर्दन पर कसते हुए , उसका दम दम घोंट रहे हैं ) मुंबई को बचाने का अब शायद यही एक जायज़ , संवैधानिक और उचित रास्ता है .....आपका क्या कहना है ?

पुनश्च:: मसला गंभीर है तथा बौद्धिक और वैचारिक स्तर पर एक निष्पक्ष एवं गंभीर संवाद की अपेक्षा रखता है ... मेरा किसी भी व्यक्ति या दल या विचारधारा से व्यैक्तिक स्तर कोई द्वेष नहीं है ....यहाँ जो भी मैंने सोचा वो अपने अभिव्यक्ती की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग करते हुए और अपनी देश के प्रति गहरी संवेदना और चिंता के चलते ही कहा है , अन्यथा मेरा कोई अन्य आशय कदापि नहीं है !

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