Wednesday, February 10, 2010

अबू अब्दुल्लाह मुहम्मद इब्न अब्दुल्लाह अल लावती अल तन्जी इब्न बत्तुता...अब बोलो कापीराईट किसका ?


"इब्ने बतूता पहन के जूता , निकल पड़े तूफ़ान में....." यह कहा था सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने और " इब्ने बतूता बगल में जूता, पहने तो करता है चुर्र्र्रर्र्र ..." यह कहा गुलज़ार ने ! और बस हो हल्ला मच गया कि गुलज़ार साहब ने खुले आम कवि सर्वेश्वर दयाल की कविता की चोरी कर ली ! यहाँ तक कि सक्सेना साहब की सुपुत्री शुभा सक्सेना ने भी इस बात को प्रेस में यह कह कर उछाला कि " इस इब्ने बतूता कविता से उसका बचपन जुडा हुआ है ....और उसके दिवंगत पिता की स्मृतियाँ भी ! गुलज़ार साहब को यदि यह कविता उठानी ही थी तो कम से कम इसका तो श्रेय तो मेरे पिता को दिया होता ..... उन्होंने जो किया , उन्हें शोभा नहीं देता ! "

इसी तरह कई और साहित्यिक खेमों में न केवल इस बात कि चर्चा हुई बल्कि इसकी खूब भर्स्तना भी की गयी और फिल्म 'इश्किया' के इस गीत पर रोक लगाने की बात से लेकर गुलज़ार साहब को अदालत में घसीटने तक के विचार का अचार डाला गया !

लेकिन हकीकत कया है इस बात को सही तरीके से जांचने और परखने की किसी ने ज़रुरत नहीं समझी ! क्या वाकई आस्कर विजेता गुलज़ार साहब के क़द के आदमी के यह दिन आ गए हैं कि उन्हें किसी और कि लिखी हुई कविता को , अपनी कह कर बाज़ार में उतारना पड़े ? आज जब पूरी दुनिया सिमट कर कम्प्यूटर के एक अदना से 'माउस ' पर आ टिकी है , क्या कोई सरेआम इस तरह की साहित्यिक चोरी करने का साहस कर सकता है ? यह सोच तक भी हास्यस्पद है ! लेकिन विवाद उठाने वालों को तो सिर्फ विवाद ही उठाना है , उन्हें किसी किस्म के तर्क या समझ से क्या सरोकार !

गुलज़ार साहब स्वयं इस बात से थोडा हैरान ज़रूर है ( लेकिन परेशान हरगिज़ नहीं ) ! उनका कहना है कि आप दोनों रचनाओं को ज़रा एक साथ रखकर देखिये तो सही .....सिवाय इब्न ए बतूता और उसके जूते के और कोई भी समानता नहीं पाएंगे ! और इब्ने बतूता कोई शब्द नहीं है ....वह तो एक ऐतिहासिक पात्र है जो तुगलक के दरबार में हुआ करता था और जिसका काम सिर्फ 'घुमक्कड़ी ' ही था .....वह दूर दूर की यात्राएं किया करता था और अनुभव इकट्ठे किया करता था !"

बात समझ में आती है ! इब्ने बतूता एक ऐतिहासिक पात्र है जिनका पूरा नाम ( एक सोस्त्र के अनुसार ) "अबू अब्दुल्लाह मुहम्मद इब्न अब्दुल्लाह अल लावती अल तन्जी इब्न बत्तुता " था ! इस तरह इब्ने बतूता कोई सर्वेश्वर दयाल जी का इजाद किया हुआ शब्द नहीं है कि जिस पर उन का कापी राइट बनता हो ! अब जैसे 'चंदा मामा' को लेकर जाने कितने ही बाल कवितायें लिखी जा चुकी हैं .....इसी तरह जाने और भी कितने ही एतिहासिक पात्र है जो गाहे बगाहे रचनाकारों के प्रिय विषय बनते रहते हैं ...तो क्या इसमें किसी किस्म की चोरी की कोई गुंजायश बनाई जा सकती है ? अब रही बात जूते की तो यह एक काव्यात्मकता की मजबूरी सी नज़र आती है ....तुकांत कविता के मुहावरों के चलते अगर हम बतूता की निकटतम तुक ढूंढे तो जूते से बढ़िया और माकूल तुक शायद ही कोई और नज़र आये ....अब जैसे यह है कि " छोटे मियां जी इब्ने बतूता - पहने पैर में बड़ा सा जूता " या " आया देखो इब्ने बतूता - पहन के मखमल वाला जूता " .......अब यह भी कहिये कि साहब चोरी का माल है ! हाँ अगर मैं इसे इस तरह कहूं कि " इब्ने बतूता बड़े नवाब - पहन के निकले लाल जुराब " या "इब्ने बतूता की किस्मत खोटी - न मिला पानी, ना ही रोटी" ....तब ? तब शायद यह चोरी ना लगे ! क्यूँ है ना ?

अरे साहब ! इब्ने बतूता और उसका जूता तो वैसे भी बड़ी सहजता से घुमक्कड़ प्रवृति का प्रतीक माने जा सकते हैं, क्यूंकि घूमना इब्ने बतूता का पेशा था और बिना जूते के भला कैसा घूमना ? और जैसा कि फिल्म 'इश्किया' में चूँकि फिल्म के दोनों पात्र भागादौड़ी में लगे हुए थे अत: उनकी उस स्तिथि को इब्ने बतूता से जोड़ना किसी भी लिहाज से अनुचित नहीं ठहराया जा सकता ! सो इस गीत को चोरी का माल बताना या गुलज़ार साहब पर सरे आम चोरी का आरोप लगाना बेमानी ही कहा जायेगा !

मैं इस बात से भली भाँती परिचित हूँ कि इब्ने बतूता शीर्षक की कविता सर्वेश्वर दयाल जी की खासी प्रसिद्द कविता है और शायद स्वयं भी उन्हें यह काफी प्रिय रही होगी ..( एक शाम मैंने स्वयं यह कविता उनके मुखारविंद से , बच्चों की पत्रिका "पराग" के कार्यालय में, चाय की चुस्कियां लेते लेते सुनी थी ) लेकिन इससे या फिर किसी भी तरह की भावुकता के चलते इस कविता को सीधे सीधे गुलज़ार साहब के गीत से नहीं जोड़ा जा सकता ! दोनों अपने आप में , इक दुसरे से अलग खड़ी, प्यारी सी , मासूम सी कृतियाँ हैं- जिन्हें जन्म देने का श्रेय दो अलग अलग महान कवियों को जाता है .....बिना किसी उलझन के और बिना किसी भी विवाद के !

2 comments:

kulwant Happy said...

एक सार्थक ब्लॉगिंग। अविराम लिखें।

हरकीरत ' हीर' said...

आपका आना सुखद लगा .....मेरा लिखना सार्थक हुआ आपकी इनायत से ....!!

किन्हीं दो कवियों की रचनाओं का मिलना संयोग भर होता है ....कुछ पढने का प्रभाव भी कह सकते हैं ....जब मैंने अमृता को पढ़ा तो यूँ लगा जैसे मेरे ही शब्द कहीं घुले हुए हैं ...वही आग....वही दर्द जो इन सांसों को सुलगाता रहा है .....शुक्रिया ....!!

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